ब-वक़्त-ए-अस्र अज़ाँ गूँजती है सहरा में नमाज़ ख़ुद ही मुसल्ला बिछाने आई है बड़ा अजीब था मंज़र अजीब रात थी वो हवाएँ सहमी हुई थीं चराग़ चुप चुप थे हर एक सम्त वही बे-कराँ सी ख़ामोशी फ़ज़ा उदास वही नीम-जाँ सी ख़ामोशी सुकूत-ए-शब में भी आहट थी इंक़िलाबों की सजी थी बज़्म वहाँ आसमाँ-जनाबों की बहुत सी बातें थीं और कोई बात थी ही नहीं फिर उस के बा'द कोई रात रात थी ही नहीं वो रात जब भी कभी याद आने लगती है तो रौशनी हमें रस्ता दिखाने लगती है उस एक शब में मुरत्तब हुआ निसाब-ए-वफ़ा लिखी गई थी उसी रात में किताब-ए-वफ़ा उस एक रात को तहरीर कोई कैसे करे ख़याल-ओ-फ़िक्र को ज़ंजीर कोई कैसे करे लहू के ख़्वाब की ता'बीर कोई कैसे करे सफ़र था कैसा वो कैसी मसाफ़त-ए-शब थी कोई बताए तो कैसी वो साअत-ए-शब थी मुतालिबात-ए-शरीअ'त बहुत ज़ियादा थे और उस के पास फ़क़त एक शब की मोहलत थी उस एक शब में उसे कितने काम करने थे उसे सिखाना था इंसाँ को बंदगी का शुऊ'र तिलावतों का क़रीना सुख़नवरी का शुऊ'र वो एक रात थी ऐसी कि क़द्र-ओ-इसरा ने नज़र जो अपनी जमाई तो फिर हटाई नहीं वो रेगज़ार के सीने पे नस्ब इक ख़ेमा लहू से सब्र की तारीख़ लिखने वाला था बुझा बुझा सा खड़ा था वो पासबान-ए-चराग़ मगर दरून में इस के बहुत उजाला था वो जानता था वफ़ादार हैं सभी नासिर वो सर कटाएँगे लेकिन न साथ छोड़ेंगे चराग़-ए-ख़ेमा बुझाने का ये न था मक़्सद कि उस को यावर-ए-अंसार को परखना था वो रौशनी में उन्हें लाना चाहता था फ़क़त समझ रहा था वो क़ुदरत के हर इशारे को सदाएँ देती रही उस को दौलत-ए-दुनिया कहाँ वो सब्र कहाँ जब्र-ओ-शौकत-ए-दुनिया मगर वो एक सदा आसमाँ से आती हुई बता रही थी कि क्या आसमान चाहता है ख़ुदा-ए-पाक कोई इम्तिहान चाहता है इसी लिए कोई सहरा की सम्त बढ़ता रहा लहू लहू किसी दरिया की सम्त बढ़ता रहा वो रौशनी की अलामत वो बानियान-ए-चराग़ समझ रहा था बुझेगा ये ख़ानदान-ए-चराग़ अजीब लोग थे वो ख़ानदान-ए-नूर के लोग थे सब के एक से लहजे कलाम यकसाँ थे ख़िलाफ़-ए-ज़ुल्म सभी के पयाम यकसाँ थे बहुत ही ग़ौर से हर चेहरा पढ़ रहे थे हुसैन कि आने वाला हर इक लम्हा पढ़ रहे थे हुसैन वो एक रात भी देखो गुज़र ही जाती है सवेरे मा'रका होता है हक़्क़-ओ-बातिल में अजीब जोश है जज़्बा है जाँ-निसारों में वक़ार-ए-तिश्ना-लबी को गले लगाए हुए गुज़र रहा है क़बीला लहू के दरिया से ब-वक़्त-ए-अस्र अज़ाँ गूँजती है सहरा में नमाज़ ख़ुद ही मुसल्ला बिछाने आई है सर-ए-हुसैन अदा कर रहा है सज्दा-ए-शुक्र गुलू-ए-ख़ुश्क पे ख़ंजर की धार चलती है पढ़ा था जिस ने कभी कुल्लु मन अलैहा फ़ान लहू से उस ने लिखा ला-इलाहा इल-लल्लाह