मज़हब-ओ-रंग की सियासत ने मेरी फ़िरदौस मेरी जन्नत का रंग और नूर ही बदल डाला पूरा दस्तूर ही बदल डाला नफ़रतों की हवा चलाई गई ज़ाफ़रानी फ़ज़ा बनाई गई ख़ून को ख़ाक में मिलाया गया सब्ज़ तहज़ीब को मिटाया गया गुल्सिताँ का निज़ाम बदला गया और पए-इंतिक़ाम बदला गया जब्र के रास्ते निकाले गए और जवाँ पेड़ काट डाले गए टहनियाँ काँपती लरज़ती रहीं सहमे सहमे गुलाब तोड़े गए फूल और पत्तियों का ज़िक्र ही क्या ग़ुंचे भी शाख़ पर न छोड़े गए तितलियों के परों को मसला गया जुगनू संगीन में पिरोए गए प्यास भी ख़ून से बुझाई गई ज़ख़्म भी ख़ून ही से धोए गए बर्फ़ की इक सफ़ेद चादर पर ख़ून से इक पयाम लिक्खा गया अम्न इंसाँ के नाम लिखा गया लोग अब पूछते हैं ऐ 'तारिक़' ख़ूँ से लिक्खा पयाम किस का है ये भी लिख दो कि नाम किस का है