अक्टूबर है कोहरे की इक मैली चादर तनी हुई है अपने घर में बैठा मैं खिड़की से बाहर देख रहा हूँ बाहर सारे पेड़ दरीदा पीले यर्क़ानी पत्तों के मट-मैले मल्बूस में लिपटे निस्फ़ बरहना बाद-ए-ख़िज़ाँ से उलझ रहे हैं हर्फ़ हर्फ़ पत्तों का अबजद पतझड़ की बे-रहम हवा को सौंप रहे हैं मैं भी अलिफ़ से चलता चलता अब या-ए-मारूफ़ पे पाँव टिका कर बैठा एक क़दम आगे मजहूल को देख रहा हूँ नंगे बच्चे दीमक चाटे उम्र रसीदा पेड़ भी अपना अबजद खो कर बर्फ़ का बोझ नहीं सह पाते गिर जाते हैं अक्टूबर से चल कर मैं भी अपने अबजद की कुतबीनी ये की यख़-बस्ता चौखट पर जूँही शिकस्ता पाँव रखूँगा गिर जाऊँगा बाद-ए-ख़िज़ाँ को क्या पर्वा है उस को तो पेड़ों को गिराना ही आता है