हम सुल्ह-ओ-मुरव्वत का जब हाथ बढ़ा देंगे इक उम्र के रूठों को आपस में मिला देंगे मुल्ला-ओ-बरहमन अब मायूस न हों हरगिज़ हम मस्जिद-ओ-मंदिर के झगड़ों को चुका देंगे क्यों दुख हो ग़रीबों को हम किस लिए हैं आख़िर जो उन को सताएँगे हम उन को मिटाएँग आपस की अदावत से हर डूबती कश्ती को एहसान ओ मुरव्वत से हम पार लगा देंगे फिर ग़ैर न समझेंगे इक दूसरे को इंसाँ जब उन को मोहब्बत का आईना दिखा देंगे मज़हब हो कोई लेकिन है हिन्द वतन अपना हम 'ज़ेब' वतन की हर बिगड़ी को बना देंगे