फ़स्ल पक आई है गेहूँ की ग़ुंचे मुस्कुराए हैं कुछ मिट्टी के गमलों में तो कुछ धरती की बाहोँ में इक इक हाथ उग आया है चटनी के लिए धनिया पोदीने की भी कोंपल थोड़ी थोड़ी फूट आई हैं मगर इक बीज तुम ने दिल की धरती पर जो बोया था वो अब भी मुंतज़िर है तुम्हारा खाद पानी चाहता है