तितलियाँ नाचती हैं फूल से फूल पे यूँ जाती हैं जैसे इक बात है जो कान में कहनी है ख़ामोशी से और हर फूल हँसा पड़ता है सुन कर ये बात धूप में तेज़ी नहीं ऐसे आता है हर इक झोंका हवा का जैसे दस्त-ए-शफ़क़त है बड़ी उम्र की महबूबा का और मिरे शानों को इस तरह हिला जाता है जैसे मैं नींद में हूँ औरतें चर्ख़े लिए बैठी हैं कुछ कपास ओटती हैं कुछ सिलाई के किसी काम में मसरूफ़ हैं यूँ जैसे ये काम है दर-अस्ल हर इक शय की असास एक से एक चुहुल करती है कोई कहती है मिरी चूड़ियाँ खनकीं तो खंखारी मिरी सास कोई कहती है भरी चाँदनी आती नहीं रास रात की बात सुनाती है कोई हँस हँस कर बात की बात सुनाती है कोई हँस हँस कर लज़्ज़त-ए-वस्ल है आज़ार, कोई कहती है मैं तो बन जाती हूँ बीमार, कोई कहती है मैं भी घुस आता हूँ इस शीश-महल में देखो सब हँसी रोक के कहती हैं निकालो इस को इक परिंदा किसी इक पेड़ की टहनी पे चहकता है कहीं एक गाता हुआ यूँ जाता है धरती से फ़लक की जानिब पूरी क़ुव्वत से कोई गेंद उछाले जैसे इक फुदकता है सर-ए-शाख़ पे जिस तरह कोई आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी की ख़ुशी में नाचे गूँदनी बोझ से अपने ही झुकी पड़ती है नाज़नीं जैसे है कोई ये भरी महफ़िल में और कल हाथ हुए हैं पीले कोयलें कूकती हैं जामुनें पक्की हैं, आमों पे बहार आई है अरग़नूँ बजता है यकजाई का नीम के पेड़ों में झूले हैं जिधर देखो उधर सावनी गाती हैं सब लड़कियाँ आवाज़ मिला कर हर-सू और इस आवाज़ से गूँज उट्ठी है बस्ती सारी मैं कभी एक कभी दूसरे झूले के क़रीं जाता हूँ एक ही कम है, वही चेहरा नहीं आख़िरश पूछ ही लेता हूँ किसी से बढ़ कर क्यूँ हबीबा नहीं आई अब तक? खिलखिला पड़ती हैं सब लड़कियाँ सुन कर ये नाम लो ये सपने में हैं, इक कहती है बाओली सपना नहीं, शहर से आए हैं अभी दूसरी टोकती है बात से बात निकल चलती है ठाट की आई थी बारात, चम्बेली ने कहा बैंड-बाजा भी था, दीपा बोली और दुल्हन पे हुआ कितना बिखेर कुछ न कुछ कहती रहीं सब ही मगर मैं ने सिर्फ़ इतना पूछा वो नदी बहती है अब भी, कि नहीं जिस से वाबस्ता हैं हम और ये बस्ती सारी? क्यूँ नहीं बहती, चम्बेली ने कहा और वो बरगद का घना पेड़ किनारे उस के? वो भी क़ाएम है अभी तक यूँही वादा कर के जो 'हबीबा' नहीं आती थी कभी आँखें धोता था नदी में जाकर और बरगद की घनी छाँव में सो जाता था माह ओ साल आते, चले जाते हैं फ़स्ल पक जाती है, कट जाती है कोई रोता नहीं इस मौक़े पर हल्क़ा-दर-हल्क़ा न आहन को तपा कर ढालें कोई ज़ंजीर न हो! ज़ीस्त-दर-ज़ीस्त का ये सिलसिला बाक़ी न रहे! भीड़ है बच्चों की छोटी सी गली में देखो एक ने गेंद जो फेंकी तो लगी आ के मुझे मैं ने जा पकड़ा उसे, देखी हुई सूरत थी किस का है मैं ने किसी से पूछा? ये हबीबा का है, रमज़ानी क़साई बोला भोली सूरत पे हँसी आ गई उस की मुझ को वो भी हँसने लगा, हम दोनों यूँही हँसते रहे! देर तक हँसते रहे! तितलियाँ नाचती हैं फूल से फूल पे यूँ जाती हैं जैसे इक बात है जो कान में कहनी है ख़ामोशी से और हर फूल हँसा पड़ता है सुन कर ये बात!