तुम जो आओ तो धुँदलके में लपट कर आओ फिर वही कैफ़ सर-ए-शाम लिए जब लरज़ते हैं सदाओं के सिमटते साए और आँखें ख़लिश-ए-हसरत-ए-नाकाम लिए हर गुज़रते हुए लम्हे को तका करती हैं ख़ुद-फ़रेबी से हम-आग़ोश रहा करती हैं तुम जो आओ तो अँधेरे में लपट कर आओ शबनमी शीशों को सहलाएँ लचकती शाख़ें और महताब-ए-ज़मिस्ताँ कोई पैग़ाम लिए यूँ चला आए कि दर बाज़ न हो कोई आवाज़ न हो तुम जो आओ तो उजाले में लपट कर आओ फिर वही लज़्ज़त-ए-अंजाम लिए जब तमन्नाएँ किसी ख़ौफ़ से चीख़ उठती हैं और ख़ामोशी-ए-लब सैकड़ों इबहाम लिए एक संगीन हक़ीक़त में बदल जाती है ज़िंदगी दर्द में ढल जाती है