हो रहा है वही जिस का अंदेशा ज़ेहनों में पलता रहा ग़ैर लोगों को अपना बनाने का फ़न गुल खिला कर रहा तुम जो यूँ दुश्मन-ए-जाँ हमारे बने थे कहो हम न कहते थे ये फ़ैसला भी तुम्हारा हमें अपनी जानों पे सहना पड़ेगा हम न कहते थे इक दिन ये हिजरत का दुख बन के नासूर जिस्मों को खा जाएगा हम न कहते थे ये साएबाँ आरज़ी है