मैं एक तेशा-ब-दस्त इंसाँ मुझे ख़राबों की जुस्तुजू है मुझे पहाड़ों की आरज़ू है मैं चाहता हूँ कि इस जहाँ के तमाम दुखड़े उखाड़ फेंकूँ मैं चाहता हूँ कि आने वाले नए ज़माने की सारी राहें हरी-भरी हों हर इक शजर इक लिबास पहने नई वज़्अ का हर एक गुल पर शबाब महके नई तरह का मैं चाहता हूँ कि नस्ल-ए-इंसाँ जो आ रही है क़रार बाँटे सुकून बोए तो प्यार काटे मगर मिरे अह्द के ये इंसाँ मिरे मुक़ाबिल खड़े हुए हैं पहाड़ बन कर मैं अपना तेशा चलाऊँ किस पर इन्ही में कोई है मेरा भाई कोई चचा है मैं सोचता हूँ उठा के तेशे को इस ज़मीं पर लकीर खींचूँ मुसालहत की फिर अपने हिस्से की सब ज़मीं पर चलाऊँ तेशा मगर ख़यालों में बात ठहरी मिरी ज़मीं के तमाम हिस्से मिरे ही बच्चों ने बेच खाए