बे-नवा By Nazm << जीना है मुझे बू-अली अंदर-ग़ुबार-ए-नाक़ा ... >> वक़्त की तुंद-ओ-तेज़ मौजें मेरे चारों जानिब बहती रहीं और मैं ब-रग़बत-ओ-रज़ा उस की हर जिगर-पाश चोट सहती रही एक मुबहम सी आस के सहारे कि शायद कभी बे-मेहर साहिल मेरा हम-नवा हो जाए Share on: