मैं अगर शाइ'र था मौला तो मिरी ओहदा-बराई क्या थी आख़िर शाइ'री में मुतकफ़्फ़िल था तो ये कैसी ना-मुनासिब एहतिमाली क्या करूँ मैं बंद कर दूँ अपना बाब-ए-लफ़्ज़-ओ-मा'नी और कहफ़ के ग़ार में झाँकूँ जहाँ बैठे हुए असहाब माबूद-ए-हक़ीक़ी की इबादत में मगन हैं और सग-ए-ताज़ी सा चौकीदार उन के पास बैठूँ वहदत-ओ-तौहीद का पैग़ाम सुन कर विर्द की सूरत उसे दोहराता जाऊँ पूछता हूँ क्या मिरी मश्क़-ए-सुख़न तौहीद की अज़ली शनासा ओ क़र्ज़ के बिगताशन की दाई' नहीं है मैं तो रासुल-माल सारा पेशगी ही दे चुका हूँ क़र्ज़ की वापस अदाई में मिरे अल्फ़ाज़ का सारा ज़ख़ीरा लुट चुका है शे'र को हर्फ़-ओ-निदा में ढालना तस्बीह-ओ-तहलील-ओ-इबादत से कहाँ कमतर है मौला शाइ'री जुज़वेस्त-अज़-पैग़म्बरी किस ने कहा था मैं तो इतना जानता हूँ मेरी तमजीद-ओ-परसतिश लफ़्ज़ की क़िरात में ढलती है तो फिर तख़्लीक़ का वाज़ेह अमल तस्बीह या माला के मनकों की तरह है फिर ख़याल आता है शायद मैं ग़लत-आमोज़ हूँ जो शेर-गोई को इबादत जान कर इतरा रहा हूँ बू-अली हूँ जो ग़ुबार-नाक़ा में गुम हो गया है