शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ जो कभी संग-ए-गिराँ बन के मिरे सर पे गिरा राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर जो कभी उक़्दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ अश्क बन कर मिरी आँखों से कभी टपका है जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़ा पर आया आज बे-वासता यूँ गुज़रा चला जाता है जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं!