कभी इस तरह वो न इतनी अयाँ थी ख़ामोशी थी लेकिन सरापा बयाँ थीं मैं सर से पाँव तक उसे पढ़ रहा था न आँखों में काजल न चेहरे पे ग़ाज़ा न हाथों में कंगन न पाँव में पाज़ेब उसे पढ़ रहा था अजब कश्मकश थी अजब सिलसिला था कि जैसे कह रही थी क़ाबिल-ए-दीद हूँ मैं इस जन्नत-ए-बे-नज़ीर में बेवा की ईद हूँ मैं