हम वो हैं जिन की रिवायात-ए-सलफ़ के आगे चढ़ते सूरज थे नगों क़ैसर-ओ-किसरा थे ज़ुबूँ गर्दिश-ए-वक़्त से इक ऐसा ज़माना आया हम निगूँ-सार-ओ-ज़बूँ-हाल-ओ-परागंदा हुए साल-हा-साल की इस सूरत-ए-हालात के बा'द एक इंसान उठा ऐसा कि जिस ने बढ़ कर अज़्म-ओ-हिम्मत का शुजाअ'त का चलन आम किया और बरसों की ग़ुलामी के शिकंजों में कसे राह-ए-गुम-कर्दा भटकते हुए इंसानों को लफ़्ज़-ए-आज़ादी-ए-जम्हूर से आगाह किया इक नए दौर-ए-दरख़्शंदा का पैग़ाम दिया क़ाफ़िले बढ़ते रहे बढ़ते रहे बढ़ते रहे सूरज आज़ादी-ए-इंसान के यूँही चढ़ते रहे हम कि वाक़िफ़ थे रिवायात-ए-सलफ़ से अपनी डट गए नज़्म-ए-वतन की ख़ातिर अज़्म-ओ-हिम्मत से शुजाअ'त से नया काम लिया और क़ाइद के उसूलों का चलन आम किया आज हम फिर वही मरदान-ए-जरी हैं कि जो थे