ज़िंदगी इतरा रही है आज तेरे नाम पर नाज़ है पैग़म्बरों को भी तिरे पैग़ाम पर रहबर-ए-इंसानियत तेरी अक़ीदत के तुफ़ैल हम ने ग़लबा पा लिया है गर्दिश-ए-अय्याम पर मेरे दिल की वुसअ'तें अंगड़ाइयाँ लेने लगीं जल्वा देखा जब तिरा हर मोड़ पर हर गाम पर क्यूँ न हो फिर आक़िबत की फ़िक्र से वो बे-नियाज़ ज़िंदगी क़ुर्बान कर दी जिस ने तेरे नाम पर मौजज़न है जिस में ऐ चर्ख़ इक सुरूर-ए-सरमदी मेरी दुनिया है तसद्दुक़ इस छलकते जाम पर