खुजूरों के पेड़ों से थोड़ा सा ऊपर जवाँ मुस्तइद चाँद तन्हा खड़ा मिरे घर मिरे शहर की पहरादारी में मसरूफ़ था चाँद की नर्म दोशीज़ा किरनें मिरे वास्ते नींद का जाल सा बुन रही थीं अचानक फ़ज़ाओं में अनक़रीब चीख़े ज़मीं की तरफ़ भूकी चीलों की मानिंद झपटे झपटते रहे ज़मान-ओ-मकाँ एक लम्हे पे आ कर ठहर से गए उसी एक लम्हे ने सारी फ़ज़ा पर किसी बूढ़ी बेवा की चादर उड़ा दी कि जिस में फ़क़त मौत की हसरतें थीं और अगले ही लम्हे ने बढ़ कर सदा दी ये लम्हा जो हम से बिछड़ कर गिरा है हमारा नहीं था