बारा-दरी में चाँद सर-ए-शाम हो गया रह-दारियाों के पर्दे उड़ाती रही हवा मशअल-तले ग़ुलाम की तलवार खो गई बुर्जी पे जब सितारा गिरा रात थी बहुत और शाह-ए-वक़्त अपने ही नश्शे में मस्त था पिशवाज़ नीचे दायरा उस को नहीं मिला बारा-दरी में आग लगी थी लगी रही और बाँसुरी के नय कहीं ख़ामोश रह गई और चाँद शाहज़ादी के क़दमों में सो गया फिर यूँ हुआ कि दर्द से आँसू हुए गुलाब और आँखें हुईं चराग़ यलग़ार रास्तों पे रही आँधियों की शब और धूल आसमान को बर्बाद कर गई सब आँगनों के कच्चे घड़ों में भरी है रेत पानी लहू हुआ सरशार ओ मस्त कैसे ज़मीं पर गिरा है ताज सो इस के ब'अद चाल ओ तारीख़ ने चली यलग़ार-ए-बर्क़-ओ-बाद हुई है गली गली बोसों में भीगती हुई तन्हाइयों की याद और सुब्ह की अज़ाँ से उड़े दिलबरी के रंग और ख़्वाब जंगलों में भटकते रहे कहीं बाला-हिसार शहर-ए-पिनह बाम-ओ-दर महल तूफ़ानी बारिशों में भी खिलते रहे गुलाब हम-जुफ़्त सारा शहर बारा-दरी में ज़िंदगी बे-नाम हो गई