लौट कर जब न घर गई होगी इक क़यामत गुज़र गई होगी रात पुर-हौल भेड़ियों का ग़ोल वो अकेली थी डर गई होगी कोई आदम न कोई आदम-ज़ाद दूर तक जब नज़र गई होगी ग़ैर का हाथ जब बढ़ा होगा जीते-जी वो तो मर गई होगी अपने तन को जला के ग़ैरत से ज़ख़्म सब दिल के भर गई होगी बिंत-ए-हव्वा जो माँगती है कफ़न सर से चादर उतर गई होगी ऐ ख़ुदा उन सुलगते होंटों की क्या दुआ बे-असर गई होगी