तुम्हारे लहजे में जो गर्मी ओ हलावत है उसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह ग़नीम-ए-नूर का हमला कहो अंधेरों पर दयार-ए-दर्द में आमद कहो मसीहा की रवाँ-दवाँ हुए ख़ुश्बू के क़ाफ़िले हर-सू ख़ला-ए-सुब्ह में गूँजी सहर की शहनाई ये एक कोहरा सा, ये धुँद सी जो छाई है इस इल्तिहाब में, इस सुर्मगीं उजाले में सिवा तुम्हारे मुझे कुछ नज़र नहीं आता हयात नाम है यादों का, तल्ख़ और शीरीं भला किसी ने कभी रंग ओ बू को पकड़ा है शफ़क़ को क़ैद में रक्खा सबा को बंद किया हर एक लम्हा गुरेज़ाँ है, जैसे दुश्मन है न तुम मिलोगी न मैं, हम भी दोनों लम्हे हैं वो लम्हे जा के जो वापस कभी नहीं आते!