सदा की मानिंद इस बरस भी तमाम कव्वों के झुण्ड कोयल मुकुट पे क़ाबिज़ नशे में पागल फुदक रहे हैं फ़त्ह पे अपनी उछल रहे हैं निराश कोयल कि जिस के सीने में हूक बन कर उदास कोयल कि जिस की शह-ए-रग पे कूक बन कर हज़ार नग़्मे धड़क रहे हैं वो आशियाने में बन के गूँगी परों में नन्ही सुरीली दिलकश धुनें समेटे सपाट नीले फ़लक को चुप-चाप देखती है जो इस बरस भी ये कह रहा है ख़मोश रहना कभी न कहना कि जब भी कोयल की कूक गूँजी ये आप अपना मुकुट सियानों से छीन लेगी कि जीते जी क्या तिरी चहक को तिरा घरौंदा तू जिस का मेहवर बनी हुई है तू जिस में ज़िंदा चुनी हुई है कि जिस का फ़र्श और छत भी तू ही जिस की दीवार-ओ-दर भी तू ही तू ही है जिस घर का रंग-ओ-रोग़न वही तिरा तेरी जाँ घरौंदा तुझे या तिरी नवा को ज़िंदा रिहा करेगा रिहा हुई तो घरौंदा क्या यूँ सजा रहेगा