जन्नत की उजली चमकीली धूप में तप कर मैं हर बार निखर जाता हूँ और धरती पर सोने का इक गर्म बदन ले कर आता हूँ इस धरती का ज़र्रा ज़र्रा मेरे क़दमों की लज़्ज़त को पहचाने है चाँद के चेहरे पर ये धब्बा मेरे माज़ी का शाहिद है ये बूढ़ी कमज़ोर हवाएँ अपनी आँखें खो बैठी हैं फिर भी मुझ को छू कर याद दिलाती हैं कुछ बीती बातें और कहती हैं तुम वो हो जो डेढ़ क़दम में सारी पृथ्वी, सातों सागर लांघ गए थे