दयार-ए-बर्ग-ए-रा'ना से गुज़रता हूँ तो मुझ को ख़ौफ़ आता है दम-ए-लम्स-ए-परेशाँ से सदा-ए-दीदा-ए-तर से मैं उस के रंग को ख़ुश्बू को उस की नग़्मगी को हादिसा मजरूह-ओ-दामांदा न कर डालो ख़ुमार-ए-आरज़ू की इंतिहा पर मैं क़लम करता हूँ अपनी उँगलियों को पुतलियों की बस्तियों में जगमगाते सब सितारों को बुझाता हूँ मैं ताज़ीम-ए-अदा-ए-नूर के हंगाम में मानूस चेहरों और आवाज़ों के साहिल पर सर-ए-मौज-ए-फ़रावाँ रौशनी का जरा अंजाम पीता हूँ मैं अपने हर सफ़र की की आख़िरी क़ुर्बत की मंज़िल हूँ मैं बुज़दिल हूँ