लफ़्ज़-ओ-मा'नी का इक सिलसिला ता-ब-हद्द-ए-नज़र नीले पीले हरे कासनी अर्ग़वानी लिबादों में मल्बूस औराक़ चारों तरफ़ दावत-ए-दीद देती हुई दाएँ बाएँ किताबें कि एहसास को गुदगुदाती हुई लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ ए'जाज़-ए-नोक-ए-क़लम हुस्न-ए-तहरीर जादू जगाता हुआ हुस्न-ए-तख़्लीक़ बे-जाँ में जाँ डालता फ़िक्र की सफ़हे सफ़हे में ख़ुशबू बसी ख़ूबसूरत ख़यालात की ताज़गी हुस्न-ए-अल्फ़ाज़-ओ-हुस्न-ए-मआ'नी के सब मो'तरिफ़ रंग-ओ-बू की फ़ज़ा कह रही है मगर चलती फिरती हुई चंद तहरीर-ए-ताज़ा दिलों को लुभाती निगाहों को शादाब करती हुई इन किताबों से बाहर हैं वो हर्फ़-ए-ज़ेबा कि ज़ेबाइयाँ ख़त्म जिन पर हैं वो हर्फ़-ए-शीरीं जो अब तक किताबों को हासिल नहीं