कैलेंडर का ख़ौफ़ By Nazm << चाँद ने सोचा बे-नियाज़ी >> दिलकशी से है ज़िंदगी महरूम मक़्सद-ए-ज़ीस्त भी है ला-मा'लूम सुब्ह होती है शाम होती है उम्र यूँ ही तमाम होती है वक़्त फिर क्यों हमें डराता है क्यों कैलेंडर से ख़ौफ़ आता है Share on: