कथार्सिस

हम उन्हें पालते हैं
अपने बच्चों की तरह

अपना ख़ून पिला कर
अपने हिस्से का रिज़्क़ खिला कर

उन्हें सैर कराते हैं
मेले ठेले और बाज़ारों की

अपनी उँगली थमा कर
कभी उन्हें

ज़र्क़-बर्क़ लिबास पहना कर
छोड़ देते हैं घने जंगल में

बे-तहाशा रक़्स करने के लिए
कभी कहते हैं

नदी के किनारे फिसलन भरी ढलान पर
दौड़ कर तितलियाँ पकड़ने को

और क़हक़हे लगाते हैं
उन के गिर जाने पर

कभी उन्हें कहते हैं
चाँद की बंजर ज़मीन पर

गुलाब की काश्त करने के लिए
और फिर सोगवार होने का ढोंग करते हैं

उन की महरूमियों पर
और जब उक्ता जाते हैं

इस खेल से
बर्फ़ के सफ़ेद कफ़न में लपेट कर

रात के हैबतनाक अँधियारे की क़ब्र में
सुला देते हैं अपनी ख़्वाहिशों को

हमेशा के लिए
और लतीफ़े सुनाने लगते हैं

दोस्तों को


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