सुन मुझे तेरे लुक़्मे की थाली की हिर्स-ओ-हवस की क़सम ये मिरा रिज़्क़ था ज़ाइक़ा जिस का तेरी ज़बाँ ने चखा क्या बताऊँ तुझे मैं कड़कती हुई धूप में पा-बरहना कहाँ तक चली मैं ने कितने कड़े कोस काटे तो दो घूँट पानी मिला कैसे मेरा लहू पानी हो के मसामों से बहता रहा और मैं ढोती रही रंज की गठरियाँ क्या कहूँ किस मशक़्क़त ने हाथों को ज़ख़्म और पैरों को छालों का तोहफ़ा दिया ये मिरी मेहनतों की कमाई थी जो तेरी थाली में है सुन मुझे मेरी फ़ाक़ा-कशी की क़सम