मैं अपनी सोचों के दाएरों में तलाशता हूँ उसी बशर को जो दाएरों का मकीं नहीं है जिसे है पाबंदियों से नफ़रत जो बंदिशों का अमीं नहीं है जो सामने है मगर नहीं है मैं अपनी सोचों के ज़ावियों को बदलना चाहूँ तो कैसे बदलूँ कि दाएरे तो हैं तीन सौ साठ डिग्रियों की फ़सील ऐसी नहीं है राह-ए-फ़रार जिस में मैं अपना रस्ता बदलना चाहूँ तो कैसे बदलूँ जहाँ से भी इब्तिदा करूँगा वहीं पे ही इख़्तिताम होगा मैं दाएरों में भटक रहा हूँ तलाशता हूँ पुकारता हूँ उसी बशर को जो मेरे अंदर छुपा हुआ है मैं ख़ुद भी ऐसा ही दायरा हूँ जो अपने अंदर भटक रहा है मिरी ये आँखें कुछ ऐसे सपनों को बुन रही हैं जो दाएरों की हुदूद से ही ना-आश्ना हैं मैं अपनी आँखों के दाएरों में उतर सकूँ तो वो लाल डोरी उधेड़ डालूँ जो ऐसे सपनों को बुन रही है कि जिन की ता'बीर मैं नहीं हूँ