उस के बिल्लोरीं पैकर पर कितने दाग़ नज़र आते थे कितने नील उभर आते थे जैसे कोई ना-शाइस्ता अपने आलूदा हाथों से बिल्लोरीं साग़र को छू ले वो शायद झल्लाती भी थी रोती भी चिल्लाती भी थी नफ़रत से बल खाती भी थी और इन्हीं शो'लों के दम से चूल्हा भी जलता रहता था लेकिन अब कितने ही दिन से उस के बिल्लोरीं पैकर पर कोई दाग़ नहीं आया है जैसे मय-ख़ाने में साग़र गर्द-ए-माह-ओ-साल में लिपटा सब की नज़र से दूर पड़ा है अब न कभी वो झल्लाती है अब न कभी वो चिल्लाती है नफ़रत के बल खाते शो'ले सब के सब दम तोड़ चुके हैं और चूल्हा ठंडा ठंडा है