तो क्या दानिश-वरी सूरज-मुखी का फूल होती है कि जो भी ज़ेब-ए-मिम्बर हो सरीर-आरा-ए-मसनद हो उफ़ुक़ पर जो उभर आए उसी की सम्त हम देखें सर-ए-तस्लीम ख़म कर के मुसाहिब शह के बन जाएँ तो क्या दानिश-वरी सूरज-मुखी का फूल होती है सियासत के उफ़ुक़ का जब कोई मंज़र बदल जाए क़यादत भी नई आए तो उस के बाद ये सोचें गुज़शता दौर कैसा था अवामी था कि फ़सताई निराजी था कि जम्हूरी हमारा हुक्मराँ क्या था हमारा तौर कैसा था हमारा तौर कैसा था गुज़शता दौर कैसा था तो क्या दानिश-वरी सूरज-मुखी का फूल होती है