उस की मर्दांगी को मेरे आँसुओं की हाजत थी वो मेरी रूह को इस वक़्त तक दाग़ता रहा जब तक उस की पोरों में मर्द होने का एहसास नहीं इतराया उस के मिट्टी वजूद को मैं ने खारे पानी से गूँध कर बे-हिसी की भट्टी में डाल दिया वो पत्थर का हो गया मैं बैन करने लगी होश आया तो उसी बुत के आगे बची-खुची तमन्नाएँ भेंट कीं और सज्दा-रेज़ हो गई तपस्या अमर हुई तो दर्द हर्फ़ चुनने लगे और मैं नज़्में गुनगुनाने लगी