वसीअ जंगल है एक जानिब पहाड़ों का सिलसिला चला है शाम आहिस्तगी से पेड़ों पे कुहनियाँ टेकती है सूरज किरन किरन अपनी रौशनी रेहन रख के ग़र्बी दयार-ए-फ़लकी से बादलों का लिहाफ़ ले कर यक-शबी नींद के तसव्वुर में ऊँघता है ख़िज़ाँ-रसीदा अनार का इक शजर खड़ा है मैं जिस के नीचे अहद-ओ-पैमाँ के लाल याक़ूत इज़हार ओ इक़रार के ज़मुर्रद किसी को देता हूँ और लेता हूँ और लफ़्ज़ों की इस तिजारत पे अपनी नींद में मुस्कुरा रहा हूँ