मिरी सोचें कभी मुझ को बहुत रंजूर करती हैं मुझी से मुझ को कोसों दूर करती हैं मैं अक्सर सोचता हूँ फिर किसी से बात कर के वक़्त का लम्हा कोई ज़ंजीर करना है दिल-ए-सादा-वरक़ पर नाम इक तहरीर करना है मगर मैं अपनी सोचों पर अमल फिर भी नहीं करता जो मेरे चाहने वाले हैं मुझ से ख़ुश नहीं रहते मैं ये भी जानता हूँ वो ब-ज़ाहिर कुछ नहीं कहते मगर मैं ख़ाना-ए-दिल के दरीचे खोले रखता हूँ