रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुए तो हैं गुलशन में चाक चंद गरेबाँ हुए तो हैं अब भी ख़िज़ाँ का राज है लेकिन कहीं कहीं गोशे रह-ए-चमन में ग़ज़ल-ख़्वाँ हुए तो हैं ठहरी हुई है शब की सियाही वहीं मगर कुच कुछ सहर के रंग पर-अफ़्शाँ हुए तो हैं इन में लहू जला हो हमारा कि जान ओ दिल महफ़िल में कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं हाँ कज करो कुलाह कि सब कुछ लुटा के हम अब बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ हुए तो हैं अहल-ए-क़फ़स की सुब्ह-ए-चमन में खुलेगी आँख बाद-ए-सबा से वअदा-ओ-पैमाँ हुए तो हैं है दश्त अब भी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से 'फ़ैज़' सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुए तो हैं