वो एक दरख़्त खड़ा ही रहता था हमेशा हमेशा से कितनी बार बदले मौसम कितनी कोंपलें फूटी और जाने कितनी बार सारे पत्ते सूख कर झड़ गए उसे एक दम नंगा कर खड़ा रहा वो फिर भी घोंसले बनते रहे अंडे कुछ फूटे कुछ साँपों ने डस लिए और जो पनप सके उस की छाया में वो जिस दिन ऊँचा उड़ सके उड़ चले खड़ा रहा वो फिर भी बँधता रहा मन्नत के लाल धागों से दबता रहा मूर्तियों के बोझ से हिला तब भी नहीं खड़ा रहा फिर भी परसों मैं जब गया उस के पास कुछ राहत की आस लिए तो देखा उस को रोते हुए मैं ने कह रहा था की थक चुका है खड़े खड़े उक्ता चुका है अपनी गहरी जड़ों की पकड़ ढीली कर बदलना चाहता है कुछ आब-ओ-हवा अब कौन समझाए उसे कि खड़े रहना उस का स्वभाव नहीं नीति है उस की हमेशा ऐसे ही रहना है उसे धूप में जलते हुए मन्नत के धागों से बंधते हुए बस ठहरे हुए बिना चलते हुए चीख़ किस क़दर ज़ोर से उठी और फिर रह गई घुट कर अदब की दीवारों से टकरा कर सूराख़ कर गई कितने उस बद-बख़्त बद-हवास और बद-हाल दिल में