तिश्नगी तिश्नगी और तिश्नगी जाने कब तक तिश्नगी सर फोड़ती दश्त-ए-तमन्ना में रही राह में यूँ तो कभी आया सराब वाहिमे का नज़रिये का फ़लसफ़े का और कभी रहगुज़ार-ए-शौक़ में कर्बला भी आ गया थी जहाँ जारी फ़ुरात-ए-ज़िंदगी तिश्नगी के लब मगर एक इक क़तरे को भी तरसा किए हो के फिर तस्वीर-ए-यास तिश्नगी ने नोच डाले अपने बाल अपने चेहरे को भी ज़ख़्मी कर लिया आज लेकिन ख़ुद फ़ुरात-ए-ज़ीस्त ने रख दिया है अपना सर तिश्नगी के पाँव पर महकी महकी सी हवा है रूह-परवर है समाँ खिल रहे हैं फूल लब पर बज रही हैं चार-सू शहनाइयाँ