लहू आज फिर बह रहा है ज़मीं तो ज़मीं आसमाँ सुर्ख़ है दयार-ए-अशोका में फिर रक़्स इबलीस का है चमन-ज़ार-ए-गौतम में हैं चाक-दर-चाक कलियाँ ज़बाँ 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की अब कुश्तनी है निगार-ए-वतन दर पे जम्हूर के सर-निगूँ है मगर ऐ शहीदान-ए-उर्दू तुम्हारा लहू चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र है मता-ए-गिराँ बहर-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र है पयाम-ए-तुलू-ए-सहर है तुम्हारे लहू से लब-ए-वक़्त पर आ गया है तबस्सुम अनादिल ने पाया है ज़ौक़-ए-तरन्नुम ज़बान-ए-ख़मोशी ने सीखी है तर्ज़-ए-तकल्लुम यक़ीं है लहू ये तुम्हारा रुख़-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का ग़ाज़ा बनेगा जबीन-ए-वतन पर ये चमकेगा सिन्दूर बन कर