रात धुँदली तीरगी नमनाक घास ठहरी ठहरी मुज़्महिल फूलों की बास तन्हा उदास बाग़ की दिल-सर्द ख़ामोशी से दूर अन-गिनत तारों का बे-तरतीब नूर सामान-ए-तूर उठ रही है जैसे मौज-ए-नीम-ताब कहकशाँ ये बारहा देखा सराब मंज़िल का ख़्वाब फूल कर अपनी तमन्ना का मआल गोशा-ए-दिल में वही ज़ोहरा-जमाल लाया ख़याल जिस ने वा की मुझ पे चश्म-ए-इल्तिफ़ात मुझ को समझा अपनी सारी काएनात हर तल्ख़ रात आज उस की दिलकशी पिटती लकीर उस की बढ़ती तीरगी का हम-सफ़ीर मेरा ज़मीर देखता हूँ फिर नुजूम-ए-ख़ुश-ख़िराम जाने कब तक लेगा मुझ से इंतिक़ाम ये हुस्न-ए-बाम