इक हसीं गाँव था कनार-ए-आब कितना शादाब था दयार-ए-आब क्या अजब बे-नियाज़ बस्ती थी मुफ़्लिसी में भी एक मस्ती थी कितने दिलदार थे हमारे दोस्त वो बिचारे वो बे-सहारे दोस्त अपना इक दायरा था धरती थी ज़िंदगी चीन से गुज़रती थी क़िस्सा जब यूसुफ़ ओ ज़ुलेख़ा का मीठे मीठे सुरों में छिड़ता था क़स्र शाहों के हिलने लगते थे चाक सीनों के सिलने लगते थे