हवा को आवारा कहने वालो कभी तो सोचो, कभी तो लिक्खो हवाएँ क्यूँ अपनी मंज़िलों से भटक गई हैं न उन की आँखों में ख़्वाब कोई न ख़्वाब में इंतिज़ार कोई अब उन के सारे सफ़र में सुब्ह-ए-यक़ीन कोई न शाम-ए-सद-ए'तिबार कोई न उन की अपनी ज़मीन कोई न आसमाँ पर कोई सितारा न कोई मौसम न कोई ख़ुश्बू का इस्तिआरा न रौशनी की लकीर कोई, न उन का अपना सफ़ीर कोई जो उन के दुख पर किताब लिक्खे मुसाफ़िरत का अज़ाब लिखे हवा को आवारा कहने वालो कभी तो सोचो!