पक्की गंदुम के ख़ोशों में उमडते दिन के डेरों में अँधेरे की घनी शाख़ों परिंदों के बसेरों में थके बादल से गिरते नाम के अंदर उतरती शाम के अंदर दवाम-ए-वस्ल का इक ख़्वाब है जो साँस लेता है महकती सर-ज़मीनों में मकानों में मकीनों में तिरे मेरे इलाक़ों में हमारे अहद-नामों में लरज़ते बादबानों में कहीं दूरी के गीतों में कहीं क़ुर्बत की तानों में अज़ल से ता-अबद फैली हुई इस चादर-ए-अफ़्लाक के अंदर रिदा-ए-ख़ाक के अंदर हमारी नींद की गलियों में अपनी धुन बजाता है मकान-ए-आफ़ियत के बंद दरवाज़े गिराता है