मैं जानता हूँ तुम्हें मिरी आरज़ू नहीं है तलब मिरी आँख में मचल के ही इतनी अर्ज़ां हुई है वर्ना मैं अपने दामन में ज़ात की किर्चियाँ समेटे खनकती मुस्कान भीक लेने तुम्हारे रस्ते में रोज़ अपना सवाल आँखों में ले के बैठूँ ये ख़ू मिरी तो नहीं थी जानाँ मैं जानता हूँ तुम इस क़दर देवता तो हो ही कि दिल के हालात जानते हो सवाल लब पे ना आने पाए दुआ को हर्फ़-ए-क़ुबूलियत भी अता करो तुम तुम इस क़दर भी ख़ुदा नहीं हो मैं अपने दामन का कुल असासा मिला के मिट्टी में हाथ जोड़ूँ और अपने होने की भीक माँगूँ मैं इस क़दर आदमी नहीं हूँ