उसे बस एक ही ज़िद है मैं उस की ज़ात से मंसूब अपने ख़यालों का कोई पैकर तराशूँ और उस के सामने रख दूँ उसे बतलाऊँ मैं उस से मुझे कितनी मोहब्बत है उसे कैसे बताऊँ मैं ज़मीं से आसमाँ तक इस मुहीत-ए-बे-कराँ को अपनी मुट्ठी में जकड़ना मेरे बस में ही नहीं है मिरे सर पर चमकते मेहरबाँ सूरज की किरनों का कोई भी गोश्वारा बन नहीं सकता ज़मीं की गोद में कितने समुंदर हैं किनारों पर नमीदा रेत के ज़र्रात हैं मैं उन को अददी दस्तरस में किस तरह कर लूँ भला मैं ला-मकाँ की वुसअ'तों को इस मकाँ में किस तरह लाऊँ जो क़ुदरत ने हमेशा अन-कहा रक्खा उस को किस तरह कह दूँ कि तितली को पकड़ लेने का ख़ुश्बू को जकड़ लेने का फ़न मुझ को नहीं आता उसे कैसे बताऊँ मैं कि इज़हार-ए-मोहब्बत इक पहाड़ी रास्ता है और चोटी तक पहुँचने का मुझे गुर ही नहीं आता