दिल-ए-नादाँ

गर आसमाँ को महर-ए-दरख़्शाँ पे नाज़ है
अंजुम पे नाज़ है मह-ए-ताबाँ पे नाज़ है

गुलशन को अपने सुम्बुल-ओ-रैहाँ पे नाज़ है
और बाग़बाँ को अपने गुलिस्ताँ पे नाज़ है

शाख़ों को अंदलीब के नग़्मों पे नाज़ है
और अंदलीब को गुल-ए-ख़ंदाँ पे नाज़ है

सब्ज़ा को अपने गौहर-ए-लर्ज़ां पे नाज़ है
सहन-ए-चमन को हुस्न-ए-ख़िरामाँ पे नाज़ है

शाइ'र को अपने हुस्न-ए-लियाक़त पे नाज़ है
आशिक़ को अपने सीना-ए-बिरयाँ पे नाज़ है

अश्कों को गरचे अपनी रवानी पे नाज़ है
आहों को अपनी आतिश-ए-सोज़ाँ पे नाज़ है

मंसूर-ए-पाक-बाज़ को दार-ओ-रसन पे नाज़
मजनूँ को अपने चाक-ए-गरेबाँ पे नाज़ है

ज़ौक़-ए-फ़ना पे नाज़ है गरचे पतंग को
महफ़िल को अपनी शम-ए-फ़रोज़ाँ पे नाज़ है

इस्याँ को गरचे रहमत-ए-यज़्दाँ पे नाज़ है
रहमत को अफ़्व-ए-कसरत-ए-इस्याँ पे नाज़ है

अपनी बला से गर कोई नाज़ाँ ख़िरद पे हो
हम को तो ऐ 'पुरी' दिल-ए-नादाँ पे नाज़ है


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