ले चलो दोस्तो ले चलो क़िस्सा-ख़्वानी के बाज़ार में उस मोहल्ले ख़ुदा-दाद की इक शिकस्ता गली के मुक़फ़्फ़ल मकाँ में कि मुद्दत से वीराँ कुएँ की ज़मीं चाटती प्यास को देख कर अपनी तिश्ना-लबी भूल जाऊँ ग़ुटरग़ूँ की आवाज़ डरबों से आती हुई सुन के कोठे पे जाऊँ कबूतर उड़ाऊँ किसी बाग़ से ख़ुश्क मेवों की सौग़ात ले कर सदाएँ लगाऊँ ज़बानों के रोग़न को ज़ैतून के ज़ाइक़े से मिलाऊँ जमी सर्दियों में गली के उसी तख़्त पर नर्म किरनों से चेहरे पे सुर्ख़ी सजाऊँ कि यारों की उन टोलियों में नई दास्तानें सुनाऊँ उन्ही पान-दानों से लाली चुराऊँ मुझे उन पुरानी सी राहों में फिर ले चलो दोस्तो हाँ मुझे ले चलो उस बसंती दुलारी मधु की गली में कि ख़्वाबों की वो रौशनी आज भी मेरी आँखों में आबाद है मेरे कानों में उस के तरन्नुम की घंटी सहीफ़ों की सूरत उतारी गई है सभी को बुलाओ कि नग़्मा-सराई का ये मरहला आख़िरी है बुलाओ मिरे राज को आख़िरी शब है फिर से हसीनों के झुरमुट में बस आख़िरी घूँट पी के फ़ना घाटियों में मैं यूँ फैल जाऊँ कि वापस न आऊँ सुनो दोस्तो