फ़र्क़ कुछ भी नहीं चाहे किसी भी सम्त चलूँ शहर का दश्त घना और घना होता है नीम-तारीक गली जिस में लगा इक खम्बा ज़र्दी-ए-ख़ास से रंगता है गली के कंकर झुक गया है जो किसी पीर-ए-ख़मीदा की तरह दम-ब-दम जल के बुझा बुझ के जला क्या कहिए बस यही शय है जिसे शहर का जुगनू कह दूँ सोचता हूँ मैं कभी यूँ भी कि इस दुनिया में बे-मआ'नी है मिरा वज्द में आ जाना भी बे-मआ'नी है मआ'नी की तवक़्क़ो' करना एक जंगल है कि जिस में मिरे आ जाने से फ़र्क़ कुछ भी नहीं चाहे कोई भी राह चुनूँ ये जगह भूल भुलैया है मगर रस्तों से मैं भी मानूस हूँ दुनिया भी है सब लोग भी हैं और इक लम्हा-ए-बे-सूद को जीने के लिए सभी कोशाँ हैं सभी जी रहे हैं जीने को और मैं भीड़ में तन्हा हूँ ठगा सा फिर भी आज मैं भी हूँ इसी भीड़ का हिस्सा भर बस मैं सवालों से अक़ीदों पे लुढ़क आया हूँ धुंध है ज़ह्न में पस्ती का मुजस्सम है बदन कोई आवाज़-ए-निहाँ मुझ से दोबारा न कहे जाग कर भी न उठे बिस्तर-ए-दुनिया से क्यों तुम मआ'नी के मुसाफ़िर थे मुसाफ़िर ही तो थे