अगर मिरे लफ़्ज़ तेरी आँखों से अश्क बन कर गिरे नहीं हैं अगर मिरे लफ़्ज़ तेरे होंटों पे गीत बन कर खिले नहीं हैं अगर मिरे लफ़्ज़ ना-रसा हैं कि मेरी पलकों की टहनियों से मिरे लहू का कोई भी पता तिरी नीली सी नींद की झील के बदन पर गिरा नहीं है वो दायरा ही बना नहीं है मैं जिस में जुड़ते उधड़ते रिश्तों को ढूँड लेता अगर मिरे लफ़्ज़ तेरे सीने में सरसराते तुझे मिरे पास खींच लाते तो मैं समझता कि मेरी बे-ज़ोर मुट्ठियों में ज़मीन की गर्दिश तड़प रही है यूँही सही फिर चलो मिरे लफ़्ज़ ना-रसा हैं मगर ज़माने बदलते रहते हैं और ये दिन-रात ढलते रहते हैं मिरे दिल में उम्मीद की एक किरन ज़िंदा है जो किसी दिन तेरी हिना-रंग उँगलियों से मिरी तमन्ना का गर्म धागा लपेट देगी इसी दिसम्बर में तेरी झोली से सर्द-मेहरी का सब सुइटर समेट लेगी