मैं इक देवता-ए-अना नर्गिसिय्यत का मारा हुआ और अज़ल से तकब्बुर में डूबा हुआ काफ़ी ख़ुद-सर हूँ ज़िद्दी हूँ मग़रूर हूँ मेरे चारों तरफ़ मेरी अंधी अना की वो दीवार है जिस में आने की और मुझ से मिलने की घुलने की कोई इजाज़त किसी को नहीं है तुम्हें भी नहीं है उसे भी नहीं है मुझे भी नहीं है मैं अपनी अना की दीवारों में तुम से अलग हो रहूँ मुझ पे सजता भी है ये मैं शाइ'र हूँ जो कि फ़ऊलुन फ़ऊलुन से बहर-ए-रमल तक हर इक नग़मगी का मुकम्मल ख़ुदा हूँ मैं लफ़्ज़ों का आक़ा तख़य्युल का ख़ालिक़ मैं सारे ज़माने से यकसर जुदा हूँ मुझे ज़ेब देता है मैं अपनी दीवार में इस तरह से मुक़य्यद रहूँ यूँही सय्यद रहूँ मुझ पे सजता है ये । पर जो कल शब तिरे शबनमी से तबस्सुम में लिपटी हुई इक नज़र बे-नियाज़ी से मुझ पर पड़ी तेरी पहली नज़र से मिरी जान-ए-जाँ मेरी दीवार में इक गढ़ा पर पड़ गया और ये ही नहीं मुझ पे वो ही नज़र जब दोबारा दोबारा दोबारा पड़ी मेरी दीवार में ज़लज़ले आ गए और रख़्ने शिगाफ़ों में ढलने लगे मेरे अंदर तलातुम वो आतिश-फ़िशाँ वो बगूले वो तूफ़ाँ वो महशर बपा था कि मैं वो कि जिस के तहम्मुल की हिकमत की फ़हम-ओ-लताफ़त की तमसील शायद कहीं भी नहीं थी सुलगने लगा अपनी हिद्दत से ख़ुद ही पिघलने लगा तुझ से कहना था ये कि मिरी जान-ए-जाँ हर सितारे की अपनी कशिश होगी लेकिन ख़लाओं में मुर्दा सितारों की क़िस्मत वो हॉकिंग की थ्योरी के काले गढ़े वो वही वो कि जिन में है इतनी कशिश कि मकाँ तो मकाँ वो ज़माँ को भी अपने लपेटे में ले लें वो हॉकिंग की थ्योरी के काले गढ़ों की ग्रेविटी भी तेरी अंखों की गहरी कशिश के मुक़ाबिल में कुछ भी नहीं और ये तो फ़क़त एक दीवार थी इस को गिरना ही था तेरी नज़रों से हारी है बिखरी पड़ी है कि दीवार का रेज़ा-रेज़ा तिरी इक नज़र से मिरी जान उजड़ा पड़ा है मैं जो देवता-ए-अना नर्गिसिय्यत का मारा हुआ वो जो ख़ुद-सर था ज़िद्दी था मग़रूर था जो फ़ऊलुन फ़ऊलुन से बहर-ए-रमल तक हर इक नग़मगी का मुकम्मल ख़ुदा था तिरी इक नज़र से अनाओं के अर्श-ए-मुअ'ल्ला से सीधा तिरे पाँव में आ के बिखरा पड़ा है