मौज-ए-सहबा में तमन्ना के सफ़ीने खो कर नग़्मा ओ रक़्स की महफ़िल से जो घबरा के उठा एक हँसती हुई गुड़िया ने इशारे से कहा तुम जो चाहो तो मैं शब भर की रिफ़ाक़त बख़्शूँ जुम्बिश-ए-अबरू ने अल्फ़ाज़ की ज़हमत भी न दी नीम-वा आँखों में इक दावत-ए-ख़ामोश लिए यूँ सिमट कर मिरी आग़ोश में आई जैसे भरी दुनिया में बस इक गोशा-ए-राहत था यही हम भी वीरान गुज़रगाहों पे चलते चलते घर तक आए तो कोई रंग-ए-तकल्लुफ़ ही न था दो बदन मिलते ही यूँ हमदम-ए-देरीना बने तनदही-ए-शौक़ में दूरी का हर एहसास मिटा सुब्ह के साथ खुली आँख तो एहसास हुआ मेरे सीने में कोई चीज़ थी जो टूट गई देर से देख रही थी तिरी तस्वीर मुझे तेरे आरिज़ पे थी बहते हुए अश्कों की नमी तेरी ख़ामोश निगाहों में कोई शिकवा न था देखते देखते वीरानी-ए-दिल और बढ़ी तेरी तस्वीर को सीने से लगा कर पूछा किस तरब-ज़ार में आसूदा है ऐ राहत-ए-ज़ीस्त मुझे इन आग के शालों में कहाँ छोड़ गई