रेल-गाड़ी ये घमसान इलाही तौबा न मुरव्वत न तकल्लुफ़ न तबस्सुम न अदा यूँही इक ग़ैर-शुऊरी सी ख़ुशुनत का ख़रोश बे-इरादा है तो क्या ग़ैर-शुऊरी है तो क्या ये नए दौर के एहसास-ए-ग़ुलामी का ज़ुहूर इंतिक़ामाना तहक्कुम की नुमूद इस में इक इज़हार-ए-बग़ावत भी तो है यूँही यूँही सही इक शाइबा-ए-दाद-ए-शुजाअ'त भी तो है चाक तो करता हूँ मैं अपना गरेबाँ ही सही कुलबुलाती हुई मख़्लूक़ की इस दलदल में सीना ताने हुए कुछ लोग बढ़े जाते हैं ख़ूब फुंकारते फन फैलाए लोग वो लोग नहीं जिन को ठुकराते हुए जाते हैं ये लोग बड़े साहब लोग ये जो हुक्काम हमारे हैं ये हुक्काम नहीं जो हमें से हैं मगर हम में नहीं ये जो बंदों के हैं आक़ा मगर आक़ा के ग़ुलाम बा-वफ़ा हूँ तो हूँ बे-दाम नहीं तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था उन पे दुनिया की हर इक राह कुशादा है मगर आज इक संग-ए-गराँ हाइल है कि उठाए न उठे और हिलाए न हिले दूसरे दर्जे के दरवाज़े में उन के आक़ाओं का इक फ़र्द फ़रंगी गोरा बाहें फैलाए हुए रास्ता रोके है खड़ा कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द अफ़गन-ए-इश्क़ सीटियाँ बजने लगीं ख़िदमत-ए-सरकार बजा लाना है और सरकार ही ख़ुद संग-ए-रह-ए-मंज़िल है ज़िंदगी आ गई दोराहे पर देर क्यूँ करते हो भागो भागो दौड़ कर थर्ड के डरबे में घुसो अपने हम-जिंस ग़ुलामों में मिलो ज़िंदगी आ गई दोराहे पर