ऐ रूह-ए-ज़िंदगी ऐ ख़ुदा की क़ुव्वत-ए-तख़्लीक़ कौन सी नई दुनियाएँ आबाद करने में मसरूफ़ हो गई है तू इस हमारी दुनिया की जानिब भी पलट कर देख जो लम्हा-ब-लम्हा वीरान से वीरान-तर होती जा रही है ऐ रूह-ए-ज़िंदगी ऐ अव्वलीन रौशनी की अबदी लौ मौत के अंधेरों को चीरती हुई आ देख मैं बाज़ू खोले खड़ा हूँ आ और अपनी लपेट में ले ले मुझे मेरी आँखों से देख मेरे ज़ेहन से सोच मेरे ख़्वाबों में उतर कर मख़्लूक़-ए-ख़ुदा की आरज़ूओं का अंदाज़ा कर मेरे दिल में पड़ाव कर इस के शिकस्ता आईने में हमारी हालत देख और नग़्मा छेड़ जो कमज़ोरों की टूटी हुई हिम्मत को अज़-सर-ए-नौ जवान कर दे वो सूर फूँक जो ज़ालिमों के दस्त ओ बाज़ू को तोड़ कर रख दे वो आह भर जो फ़ाक़ों मरती मख़्लूक़ पर रिज़्क़ की बारिश बन कर बरस जाए वो सदा कर जो नीयत के फ़ुतूर को हुस्न-ए-ख़याल में और नतीजे की अज़िय्यत को हुस्न-ए-अमल में बदल दे ऐ रूह-ए-ज़िंदगी ऐ ख़ुदा की क़ुव्वत-ए-इज़हार मेरी दुनिया में तेरे रंग फीके पड़ गए हैं देख अरबों इंसान जीते-जी मर रहे हैं ना-इंसाफ़ी बद-अमनी मायूसी बीमारी और जहालत ने तेरी तस्वीर में मौत के रंग भरने शुरूअ कर दिए हैं आ, और बोल मेरे अंदर से आ, मेरा कलाम बन जा बयान बन जा मेरा क़लम बन जा मू-क़लम बन जा आ, इंसाफ़ अम्न और आज़ादी को तरसे हुओं की उम्मीद बन जा आ, दोस्ती मोहब्बत और बराबरी से महरूम मख़्लूक़ की ढारस बँधाने आ आ, और जल्दी आ कि तुझे पुकारते पुकारते कहीं मैं हाथ तोड़ कर न बैठ जाऊँ